निकले थे राजीव चौक से अपनी मंज़िल पाने को,
पर भीड बहुत थी मेरे साथ
यूँ हीं वे कहीं पर जाने को |
थे साथ मेरे वो कई लोग जो ना दुश्मन
और ना ही दोस्त.!
कुछ कोलाहल ऑफीस वालों का,
कुछ कर्कश ध्वनि हसीनों की
कुछ महक वहाँ थी डेनिम की गर
खुश्बू भी खून-पसीनो की |
सब अपनी धुन में चलते थे
जब भी दरवाजे खुलते थे
धक्के तो जाम के लगते थे
फिर भी ना कदम ठहरते थे
है डर भी उनके अंदर…,
माथे पर शिकन भी आनी है
पर इतना भी भूलों ना तुम
मंज़िल तो मिल ही जानी है
दिल्ली की यही कहानी है !
दिल्ली की यही कहानी है !
-Deepank Deo, 4th Year student of SNU